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“आनंद”

– अशोक पाण्डेय
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आनंद: क्षणिक और स्थाई दो प्रकार के होते हैं जो किसी भी मनुष्य के जीवन हमेशा नहीं होता। मनुष्य का नश्वर जीवन सुख और दुख के दो किनारों के बीच चलता है जिसमें दुख अधिक होता है और सुख कम। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी के अनुसार: आनंद तीन प्रकार के होते हैं :विषयानंद, भजनानंद और ब्रह्मानंद। इस संसार में लोग सबसे अधिक विषयानंद में ही लिप्त हैं। यह आनंद मोह और माया के अधीन है । इस आनंद में मन की चंचलता की भूमिका प्रबल होती है। यह आनंद हमारी कर्मेंद्रियां के वशीभूत होता है जिसके बदौलत मनुष्य ईश भजन से दूर हो जाता है। भजनानंद में मनुष्य ईश्वर के नाम और उसके गुणगान में लिप्त रहता है। मीराबाई कहती है : मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई। और, ईश्वर के दर्शन में जो आनंद आता है उसे ब्रह्मानंद कहते हैं। यही आनंद जीवन में आध्यात्मिक सुख प्रदान करता है। साधु- संतों, ऋषि- मुनियों का जीवन इसी आनंद प्राप्ति व्यतीत होता है। ऐसे में मन के ऊपर विवेक के सतत नियंत्रण की आवश्यकता है। और यह भी ध्रुव सत्य है कि जैसे -जैसे मनुष्य का मन पवित्र होते जाता है वैसे -वैसे मनुष्य विषयानंद से दूर होने लगता है और उसकी मनोवृत्ति भजनानंद की तरफ बढ़ने लगती है। एक समय ऐसा भी मनुष्य के जीवन में आता है कि वह विषयानंद को छोड़कर, भजनानंद में रम जाता है और उसके जीवन की अंतिम परिणति ब्रह्मानंद में विलीन हो जाती है। मेरा यह व्यक्तिगत निवेदन है कि प्रत्येक मनुष्य को विवेकी बनकर चौथेपन में सत्संग, सद्गुरु और सद्ग्रंथ से अपने आपको जोड़ लेना चाहिए।
-अशोक पाण्डेय

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