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“आप क्या बनकर जीना चाहेंगे: एक किसान या एक जमींदार? “

-अशोक पाण्डेय
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एक किसान और एक जमींदार में मूल अंतर यह है कि किसान इस सृष्टि का ब्रह्मा, विष्णु और महेश होता है। उसके जीवन की सबसे बड़ी वास्तविक अमानत उसका कठोर परिश्रम होता है। दूसरी तरफ जमींदार बड़ी -बड़ी जमीनों का मालिक होता है। वह अपनी जमीन की अधिकता के चलते अहंकारी बन जाता है। ये बात आज से लगभग सत्तर दशक पूर्व की बात है। लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में अगर एक किसान का मूल्यांकन किया जाय तो किसान की परिश्रम संस्कृति धीरे- धीरे समाप्त होती जा रही है। अगर जमींदार के अहंकार की समीक्षा करें तो आज न तो कोई जमींदार है न ही उसका अहंकार ही है। आज न तो भारत की आत्मा गांवों में रहती है न ही किसान का वह जाड़े, गर्मी और बरसात का कठोर परिश्रम।आज एक गरीब किसान के पास कुछ भी बचा हुआ है तो वह है उसका अपने अतिथियों के प्रति यथाशक्ति सेवा और सम्मान का आत्मीय भाव और व्यवहार। आपने तो सुना होगा कि एक संन्यासी किसी गांव में रात्रि विश्राम किए और वह भी एक किसान के घर न कि उस गांव के जमींदार के घर। जमींदार ने जब संन्यासी से पूछा कि वह रात में किसान के घर विश्राम क्यों किया और उसकी सूखी रोटी क्यों खाया तो संन्यासी ने जमींदार को जवाब में अपने एक हाथ में किसान की रोटी को दबाया द और दूसरे हाथ में जमींदार की रोटी को । किसान की रोटी से दूध टपकने लगा जबकि जमींदार की रोटी से खून। मित्रवर,आप जो कुछ भी हों अपने अंदर एक किसान के कठोर परिश्रम को अपनाएं।
जीवन स्तुत्य बन जाएगा।
-अशोक पाण्डेय

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