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खडी बोली हिन्दी के जन्मदाताः भारतेन्दु हरिश्चंद्र की 171 वीं जयंती 09सितंबर को भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने मात्र 15 साल की उम्र में श्रीजगन्नाथ पुरी आकर जगन्नाथजी से हिन्दी-लेखन का दिव्य आशीष लिया था।

भुवनेश्वरः4सितंबरःअशोक पाण्डेयः
सितंबर महीने को अब तो केन्द्र सरकार के सभी विभागों,अनुभागों,कार्यालयों,उपक्रमों,केन्द्रीय विद्यालयों,
नवोदय विद्यालयों तथा सैनिक स्कूलों में हिन्दी माह के रुप में मनाया जाता है।पहले 14सितंबर को हिन्दी दिवस के रुप में मनाया जाता था। उसके उपरांत हिन्दी सप्ताह मनाने का प्रचलन आरंभ हुआ।तदोपरांत हिन्दी पखवाडा मनाया जाने लगा और अब तो 21वीं सदी में सितंबर महीने को हिन्दी महीने के रुप में मनाये जाने का प्रचलन आम हो चुका है। ऐसे में, खडी बोली हिन्दी के जन्मदाताःभारतेन्दु हरिश्चंद्र की 171वीं जयंती 09सितंबर,2021 को है। सत्यनगर-29,भुवनेश्वर उत्कल-अनुज हिन्दी पुस्तकालय की ओर से प्रतिवर्ष उनकी जयंती मनाई जाती है लेकिन कोरोना के चलते इस साल मैंने यह उचित समझा कि भारतेन्दु हरिश्चंद्र, हिन्दी खडी बोली के जन्मदाता के विषय में कुछ जानकारियां अपने सजग हिन्दी प्रेमियों,पाठकों तक जरुर पहुंचाऊं। भारतेन्दु हरिश्चंद्रजी का जन्मः09सितंबर,1850 को बनारस,उत्तरप्रदेश में हुआ। उनके पिता गोपाल चंद्र भी एक कवि थे। पिता की प्रेरणा से ही वे लेखन क्षेत्र में आगे बढ़े। बहुत कम उम्र में ही वे अपने माता-पिता को खो दिये लेकिन उनके जीवन की सबसे रोचक घटना यह रही कि मात्र 15 साल की उम्र में ही वे अपने माता-पिता के साथ जगन्नाथ पुरी आये। भगवान जगन्नाथ के दर्शन किये जिनके दिव्य आशीष ने अपनी लेखन जिंदगी का श्रीगणेश किया। हिंदी गद्य को उन्होंने एक नई शैली दी । उन्हें हिन्दी साहित्य का पितामह कहा जाता है। उनका मूल नाम ‘हरिश्चन्द्र’ था और ‘भारतेन्दु’ उनकी उपाधि थी। हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभा का सदुपयोग किया।वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।हिंदी में नाटकों का प्रारम्भ उन्होंने ही किया।ऐसी बात नहीं है कि उनके पूर्व हिन्दी में नाटक-लेखन नहीं था परन्तु उन्होंने हिंदी नाटक-लेखन की नींव को और अधिक सुदृढ़ बनाया।वे आजीवन एक सफल कवि, व्यंग्यकार, नाटककार, पत्रकार तथा साहित्यकार थे। उन्होंने मात्र 34 वर्ष में ही विशाल साहित्य की रचना कर अमर हो गये। उनकी वैश्विक चेतना भी प्रखर थी। उन्हें अच्छी तरह पता था कि विश्व के कौन से देश कैसे और कितनी उन्नति कर रहे हैं। इसलिए उन्होंने 1884 में बलिया के दादरी मेले में ‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है’ पर भाषण दिया था जिसमें उन्होने लोगों से कुरीतियों और अंधविश्वासों को त्यागकर अच्छी-से-अच्छी शिक्षा प्राप्त करने, उद्योग-धंधों को विकसित करने, सहयोग एवं एकता पर बल देने तथा सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होने का आह्वान किया था।देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया। हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में भी उन्होंने अपनी असाधारण लेखन प्रतिभा का उपयोग किया।वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिंदी पत्रकारिता, नाटक और काव्य के क्षेत्र में उनका बहुमूल्य योगदान रहा। हिंदी में नाटकों का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चंद्र से माना जाता है।मात्र चौंतीस वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने विशाल साहित्य की रचना की।अपने छात्र-जीवन से ही मैंने उनके सत्य हरिश्चन्द नाटक तथा भारत दुर्दशा के पढने,उसके मंचन को देखने का शौकीन हूं।
अशोक पाण्डेय

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