-अशोक पाण्डेय
इस संसार में मनुष्य को सृष्टि का एकमात्र विवेकशील प्राणी माना गया है। मनुष्य की सोच नकारात्मक और सकारात्मक दोनों होती है। लगभग 20 प्रतिशत लोग हीसकारात्मक सोचवाले होते हैं जबकि लगभग 80 प्रतिशत लोग नकारात्मक सोचवाले होते हैं। दोनों प्रकार के लोगों में एक जो खास अंतर यह होता है कि नकारात्मक सोचवाले व्यक्ति दूसरों के अंदर की बुराइयों को ही देखते हैं और उसी की निंदा में अपने जीवन की सार्थकता को सिद्ध करने में लगे रहते हैं। लेकिन सकारात्मक सोचवाले व्यक्ति सदा दूसरों की अच्छाइयों को ही देखते हैं और उसकी सार्वजनीन प्रशंसा करके अपने जीवन को आनंदमय बनाये रहते हैं।इस सृष्टि के आरंभ से ही नकारात्मक सोच बनाम सकारात्मक सोच का प्रत्यक्ष-परोक्ष युद्ध यहां तककि शीतयुद्ध चलते आया है।इसके साक्षी हैं हमारे वेदों,पुराणों,उपनिषदों,रामायण और महाभारत आदि की कथाएं। सकारात्मक सोचवाले के यथार्थ आदर्श हैं मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम ,श्रीकृष्ण ,गौतम और गांधी जबकि नकारात्मक सोचवाले के यथार्थ आदर्श हैं राक्षसगण,रावण,कंस और कौरव आदि।
आज के प्रजातांत्रिक युग में तो नकारात्मक सोचवाले देशों में शीतयुद्ध और वाक्युद्ध सतत चल रहा है।भारत जैसे विश्व के आध्यात्मिक गुरु देश को छोडकर करीब-करीब सभी देश नकारात्मक विचारों के साथ एक-दूसरे को क्षति पहुंचाने में लगे हुए हैं। आज पूरी दुनिया में जहां कहीं भी किसी प्रकार का संघर्ष चल रहा है तो उसके मूल में नकारात्मक सोच ही है। युद्ध कभी कोई देश नहीं लडता है अपितु दो व्यक्तिगत स्वार्थ कहें अथवा विचार(सकारात्मक विचार और नकारात्मक विचार) मात्र ही लडते हैं।राम-रावण के युद्ध को देख लें,कौरवों और पाण्डवों के मध्य महाभारत युद्ध को देख लें,सभी युद्धों में दो विचारों का संघर्ष रहा है।ऐसे में सच्चे और सकारात्मक सोचवाले गुरु की भूमिका भी अहम् मानी गई है। जाननेवाले जानते हैं कि एक ही गुरु से पाण्डव भी पढे थे और कौरव भी लेकिन एक की सोच(पाण्डवों की) सकारात्मक हो गई जबकि दूसरे की सोच(कौरवों की सोच) नकारात्मक।
आज सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही विचारों के लोग अपने-अपनेव्यक्तिगत जीवन में प्रतिष्ठा चाहते हैं,मान-सम्मान चाहते हैं और उसके लिए वे कल,बल और छल से धनोपार्जन करना चाहते हैं।आज की सोसल मीडिया ने तो नकारात्मक सोचवालों को सबसे बडा ज्ञानी बना दिया है।ऐसे में, दुनिया के जितने भी संवृद्ध लोग हैं अपनी-अपनी सोच को सकारात्मकबनायें।धन कमाने की लालसा तालाब में जल की ऊपरी सतह पर खिले हुए कलम के फूल जैसी होती है। बढत-बढत संपत्ति सलिल,मनसरोज बढि जाय,घटत-घटत पुनि ना घटे, बरु समूल कुंभलाय।-अर्थात् जब व्यक्ति के पास धन आता है तो सबसे पहले उसका मनरुपी कमल बढ जाता है।लेकिन जिस प्रकार तालाब का जलस्तर कम हो जाने पर जल की ऊपरी सतह पर बढा कमल का फूल कभी भी जलस्तर के कम होने पर नीचे नहीं आता चाहे वह जड सहित टूट ही क्यों न जाय ठीक उसी प्रकार मनुष्य के पास जब धन आता है तो उसका मन बढ जाता है ,उसकीआमदमनी बढने के साथ-साथ उसका बढा मन कभी भी नीचे नहीं आता है।सभी जानते हैं कि अत्यधिक धनोपार्जन की लत बहुत बुरी होती है। यह लत अधिकांश लोगों को नकारात्मक सोच की ओर अग्रसर कर देती है ऐसा समाजशास्त्री बताते हैं।और वे और अधिक,और अधिक धन कमाने के पीछे अपनी पत्नी,अपनी संतान और अपने लोगों को बडी तेजी के साथ भूलने लगतेहैं। अगर एकबार इस नकारात्मक सोच की लत (गलत तरीके से धनोपार्जन की)लग जाती है तो लोग गलत तरीके से धनोपार्जन में अपने आपको लगाते जाते हैं।वे अपने सभी रिश्ते-नाते को भूल जाते हैं।सबसे पहले तो वे अपने संयुक्त परिवार को एकाकी परिवार बना देते हैं।आपसी पारिवारिक और सामाजिक मधुर रिश्तों को खत्म कर देते हैं।सच कहा जाय तो उसके लिए आज का यह मोबाइल कल्चर भी दोषी है। अगर घर में कुल चार सदस्य हैं तो खाने की मेज पर जब वे बैठते हैं तो वे आपस में बातचीत नहीं करते हैं अपितु अपने-अपने मोबाइल पर किसी न किसी पराये को अपना मानकर चैट करते नजर आते हैं।मनोवैज्ञानिकों का यह मानना है कि धन आने से मनुष्य की धन कमाने की इच्छाशक्ति भी बढ जाती है।उसके अंदर की गलत प्रवृत्तियां बढ जातीं हैं। जैसे-जैसे उसके धन में बढोत्तरी होती है उसकी मनोवृत्ति नकारात्मकता की ओर बढने लगता है। वहझूठबाजी,कालाबाजारी और चोरबाजारी की दुनिया में आगे बढने लगता है।अधिक से अधिक धन कमाने की लालसा उसे शारीरिक और मानसिक रुप से इतना कमजोर कर देती है कि वह गलत आचरण करने लगता है और दुराचारी बन जाता है। उस व्यक्ति के पास गलत तरीके से धन आते ही वह असत्य बोलना आरंभ कर देता है। उसके जीवन में धन आने पर वह आदमी अहंकारी हो जाता है।क्रोधी हो जाता है।धन आने पर उसके मन में अनेक प्रकार की गलत इच्छाएं स्वतः पैदा हो जातीं हैं।जैसेः इंद्रियों का सुख और उससे संबंधित सभी संसाधन की प्राप्ति आदि की कामना और उपभोग आदि।उन धनी लोगों के अनेक दुश्मन भी पैदा हो जाते हैं जो अनेक षडयंत्र रचकर उनके धन को ऐंठने में लग जाते हैं। सोसल मीडिया का साइबर क्राइम इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।नकारात्मक सोच वाले ऐसे धनी लोगों से गलत आचरण करनेवाले लोग जलने लगते हैं।गलत सोच तथा आचरण से कमाई करनेवाले वह व्यक्ति अविश्वासी बन जाते हैं।वे बात-बात में झूठ बोलने लगता है जिसके फलस्वरुप उनके सगे-संबंधी,उनके इष्ट-मित्र,उनके गुरुजन,उनके स्वजन-परिजन यहां तककि उसकी पत्नी और उसकी संतानें भी उनपर विश्वास नहीं करते हैं। व्यक्ति के पास धन आने से व्यक्ति ठगबाज और लंपटबन जाता है।वह दुराचारी और व्यभिचारी बन जाता है। उसकी सोच पूरी तरह से नकारात्मक हो जाती है। वह अधिक से अधिक धन कमाने की मनोवृत्ति से जीने लगता है। वह शेयरबाजारीऔर सट्टेबाजीमें लग जाता है।नकारात्मक सोचवाले ऐसे व्यक्ति के पास धन आने पर वे मादक पदार्थों के नियमित सेवन करने के आदीबन जाते हैं। वे अपनी नकारात्मक सोच के कारण किसी भी तरह से सुखी नहीं होते हैं।वे रात में चैन से सो नहीं पाते हैं।यही हाल उनकी अपनी बीवी तथा बच्चों की भी हो जाती है।वे भी नकारात्मक सोच और विचार की ओर आगे बढने लगते हैं। जीवन का अनुभव कहता है कि धन अर्जन के साथ संतोष का होना बहुत जरुरी है जैसे आत्मविश्वासी,सदाचारी और आत्मनिष्ठ व्यक्ति होते हैं जिनकी सोच सदा सकारात्मक होती है।इसीलिए इस भौतिकवादी युग मात्र सदाचारी और ज्ञानी ही सुखी हैं।तो आइए,शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति अपनाकर अपने-अपने विचारों को सकारात्मक बनायें।
-अशोक पाण्डेय
