“संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते॥”
अथर्ववेद – 3.30.3
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हम सब संग संग चलें, मिलकर बोलें, और हमारा मन भी एक समान हो।
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जैसे पूर्वकाल के देवता एकजुट होकर यज्ञ में भाग लेते थे, वैसे हम भी मिलकर कार्य करें।
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“समानी व आकूति: समाना हृदयानि व:।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति॥”
ऋग्वेद – 10.191.4
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हम सबकी इच्छा एक जैसी हो, हृदय एक जैसे हों।
सबके मन समान हों ताकि हम सब मिलकर सौहार्दपूर्वक रहें!
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“मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।”
“मैत्रीं भवत् न ऋषि: कश्चन शत्रु:।”
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मैं इस सृष्टि के सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखता हूँ। जिसके भीतर मित्रता है, उसके लिए कोई भी मनुष्य शत्रु नहीं होता।
सामवेद
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मित्र हो तो श्रीकृष्ण सुदामा जैसा ही हो!
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