प्रस्तुतिः अशोक पाण्डेय
वानप्रस्थ संस्कार भारतीय सनातनी धर्म तथा संस्कृति का प्राण है। युवावस्था के कुसंस्कारों के प्रायश्चित के लिए वानप्रस्थ संस्कार परम आवश्यक होता है। वैसे तो गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णवेध,उपनयन, केशान्त, समावर्तन, विवाह, वानप्रस्थ, ब्रह्मचर्य, संन्यास, अन्त्यकर्म तथा• श्राद्ध संस्कार आदि मुख्य 16 संस्कार हैं। गौतम धर्मसूत्र में 40 संस्कारों की जानकारी मिलती है। महर्षि अंगिरा कुल 25 संस्कारों को मान्यता देते हैं। रामचरितमानस में भी –“चौथेपन नृप कानन जांहि” की चर्चा है। वानप्रस्थ संस्कार ढलती उम्र की आवश्यकता है जिसमें उपासना, स्वाध्याय, संयम तथा सेवा का विशेष महत्त्व होता है क्योंकि वृद्धावस्था में जो संस्कार अर्जित किये जाते हैं वे ही परलोकगमन के समय हमारे साथ जाते हैं। वानप्रस्थ संस्कार के अर्जन से वृद्धजन, साधु-संत, तपस्वी,ज्ञानी चारों तरफ सन्मार्ग, शिक्षा, स्वास्थ्य, सदाचार, विवेक, न्याय, सुशासन, विज्ञान, सुरक्षा, सुव्यवस्था आदि का नेतृत्व करते हैं जिसका लाभ सम्पूर्ण जनमानस को मिलता है। वानप्रस्थ संस्कार के द्वारा पुण्य परम्परा जाग्रत हो जाती है। मानव जीवन में दो बार संचयकाल और दो बार उपयोग काल होता है। बास्यकाल और बुढापाकाल संचय काल होता है जबकि यौवन तथा परलोक-भोग उपयोगकाल होता है। ऐसे में प्रत्येक 60साल से अधिक उम्रवालों को अपने परलोक सुधारने के लिए वानप्रस्थ संस्कार अवश्य ग्रहण करना जाहिए।
अशोक पाण्डेय
“वानप्रस्थ संस्कार “
