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व्यक्ति के कर्म ही उसके भाग्य का निर्धारण करते हैं।

–अशोक पाण्डेय
मोह-माया के इस संसार रुपी कर्मस्थली में व्यक्ति का कर्म ही उसके भाग्य का निर्धारण करता है।ब्रह्माजी से के पास ज्ञान उपहार में मांगने के लिए देवता,दानव और मानव एकसाथ पहुंचे तो ब्रह्माजी की दिव्य वाणी से सिर्फ एक अक्षर निकलाःद। उसे देवताओं ने दमन के रुप में ले लिया। दानवों ने दंभ के रुप में ले लिया और मानव ने दान के रुप में ले लिया।अगर इन तीनों के कर्मों पर विचार करें तो यह बात पूरी तरह से स्पष्ट हो जाती है कि सभी अपने कर्मों के बदौलत ही अपने भाग्य का निर्धारण स्वयं करते हैं। आर्यावर्त्त ऋषि-मुनियों का देश रहा है जहां पर ऋषि-मुनियों का स्थान और सम्मान सर्वोच्च व सर्वश्रेष्ठ रहा है। त्रेतायुग में राजा दिलीप को जब कोई संतान नहीं हो रही थी तो वे अपने कुलगुरु वसिष्ठ के पास जाते हैं और उनसे अपने लिए पुत्रप्राप्ति के उपाय की याचना करते हैं।कुलगुरु वसिष्ठ ने राजा दिलीप को नंदिनी नामक गाय की सेवा का सुझाव देते हैं और तब राजा दिलीप की पत्नी सुदक्षिणा के गर्व से एक पुत्र का आविर्भाव होता है जिसका नाम रघु पड़ता है।मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम उसी रघुकुल थे जिन्होंने अपने कर्मों से अपने भाग्य का निर्धारण किया।दैवी मिलन शिव-पार्वती का,सीता-राम का और राधा-कृष्ण का यह स्पष्ट करता है कि मानव क्या ईश्वर भी अपने कर्मों के द्वारा अपने भाग्य के निर्धारक रहे हैं। जो व्यक्ति अपने मन को नियंत्रितकर तथा मौन रहकर सत्संग करता है,सद्ग्रंथ पढ़ता है और सद्गुरु को अपनाता है वह अपने स्वचिंतन-मनन से भी अपने भाग्य का निर्धारण कर सकता है।ऐसे में, विचारसंयम व विचार-संस्कृति भी बहुत जरुरी है। स्कन्द पुराण जो सबसे बड़ा पुराण है और जिसमें कुल 49 अध्याय हैं और कुल 81 हजार श्लोक हैं, उसके वैष्णव खण्ड में पुरुषोत्तम महात्म्य की कथा वर्णित है जिसके चार वक्ता तथा चार श्रोता हैं।सबसे पहले ब्रह्मा जी भगवान शिवशंकर से पुरुषोत्तम महात्म्य की कथा सुनाते हैं।भगवान शिवशंकर स्कन्द जी को सुनाते हैं। स्कन्द जी जैमिनी को तथा जैमिनि जी समस्त मुनियों को मंदराचल पर्वत पर कलियुग के एकमात्र पूर्ण दारुब्रह्म भगवान जगन्नाथ की कथा सुनाते हैं जिसमें उन्हें भक्तों की आस्था और विश्वास के महाप्रभु के रुप में बताया गया है।और उससे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान जगन्नाथ भी स्वयं अपने कर्मों के माध्यम से ही अपने भाग्य का निर्धारण करते हैं।आदिशंकराचार्य से लेकर चारों धामों के पीठाधीश्वर तथा जगतगुरु भी यह स्पष्ट संदेश देते हैं कि प्रत्येक मनुष्य अपने कर्मों के माध्यम से ही अपने भाग्य का निर्धारण करता है। साथ ही साथ किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व भी उसके कर्मों से प्रकट होता है। उसका मौखिक,शारीरिक और मानसिक चरित्र-कर्म भी उसके भाग्य का निर्धारण अवश्य करते हैं। राम अपने सभी भाइयों से प्रेम करते हैं।वे भरत को कुलीन कहते हैं।राम लक्ष्मण को अपनी आत्मा कहते हैं। ऐसे में,आज आवश्यकता हैःराम-भरत की। राम जहां मर्यादा और आदर्श के यथार्थ रुप में सच्चे मार्गदर्शक हैं वहीं भरतजी शांति और तृप्ति के मार्गदर्शक हैं।भरत नाम को सार्थक करते हैं। श्रीरामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में श्रीराम तीन मुनियों-महर्षि भरद्वाज,वाल्मीकि मुनि और अगस्त्य मुनि से क्रमशः तीन अलग-अलग वरदान मांगते हैं-जंगल जाने के सुरक्षित रास्ते का,जंगल में सुरक्षित निवास करने के लिए स्थल का और राक्षसों के वध का । इसप्रकार श्रीराम ऋषियों से अपने जीवन की प्रतिकूल परिस्थिति से निपटने के लिए ज्ञान,भक्ति और कर्म का वरदान मांगते हैं जिनके बदौलत वे अपने कर्मों के बल पर ही अपने भाग्य का निर्धारण कर सकें। रामायण और श्रीरामचरितमानस दोनों महाकाव्यों में यह बात पूरी तरह से स्पष्ट कर दी गई है कि मनुष्य का कर्म ही उसके भाग्य का परिचायक होता है। सीता-राम,माण्डवी-भरत,उर्मिला-लक्ष्मण तथा श्रुतिकीर्ति-शत्रुध्न का सौहार्दपूर्ण पत्नी-पति का संबंध यह सिद्ध करता है कि मनुष्य का कर्म ही उसके भाग्य का निर्धारण करता है।कैसा सुखद आश्चर्य है कि सीता के विवाह के लिए सीता स्वयंवर होता है लेकिन विवाह होता है राम के चारों भाइयों का।
कुलमिलाकर,वाल्मीकिकृत रामायण में और गोस्वामी तुलसीदासजीकृत श्रीरामचरितमानस में वर्णित धर्म ही कर्म है,कर्तव्य है जिसका प्रतिफल प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना भाग्य होता है। इन दोनों महाकाव्यों का कर्म सिद्धांत ही भारतीय संस्कृति के आधार हैं जिसमें यह स्पष्ट रुप से देखा जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति का कर्म ही उसके भाग्य का निर्धारण करता है।
अशोक पाण्डेय
मोबाइलः8895267920

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