यह सत्य है कि सद्गुरु ही हमें त्यागी और वैरागी बना सकते हैं. सच मानिए, आपके लिए विषय वासना को सामने न आने देना “त्याग” है और विषय वासना आपके सामने रहते हुए भी उसमें आपका आसक्त न होना ही “वैराग्य” है. मान्यवर,आप अपने चौथेपन में अपने घर से भी वैरागी बनें और शरीर से भी! आप इसके लिए सद्बुद्धि के साथ सत्कर्म करें, सद्गुरु की शरण में जाएं और अपने मनुष्य जीवन को धन्य करें!
जय जगन्नाथ जी!
