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“सेवा का सच्चा स्वरूप “

विचार: अशोक पाण्डेय

एक सद्गुरु के आश्रम में तीन बुद्धिमान शिष्य रहते थे। सद्गुरु जी ने मानव सेवा को ही माधव सेवा की उन्हें शिक्षा प्रदान की। समय आया उन तीनों की व्यावहारिक परीक्षा लेने की। अचानक अकाल पड़ गया।लोग भूख से मरने लगे।सद्गुरु जी को जब पता चला तो वे अपने तीनों बुद्धिमान शिष्यों को अपने पास बुलाया और यह निदेश दिया कि वे जरूरमंदों के पास जाएं। उनके प्रति सच्ची सहानुभूति रखकर उनकी सेवा करें और उन्हें आदर सहित भोजन उपलब्ध कराएं। बुद्धिमान शिष्यों ने अपने सद्गुरु जी से निवेदन किया कि उनके पास तो भोजन सामग्री आदि तो नहीं है। तब सद्गुरु जी ने तीनों को एक-एक बाल्टी दी और कहा कि यह चमत्कारी बाल्टी है। इससे जो भी खाने की सामग्री मांगी जाएगी,ये तत्काल प्रदान करेंगी। तीनों बुद्धिमान शिष्य तीन अलग-अलग दिशाओं में निकल पड़े। दो तो कुछ दूर जाकर बैठ गये और उन सभी की सहानुभूति के साथ सेवा की और भोजन उपलब्ध कराया जो उनके समीप से गुजरते थे। तीसरा बुद्धिमान शिष्य गांव -गांव में जाकर एक -एक की सेवा पूरी सहानुभूति के साथ किया। बड़ी ही आत्मीयता के साथ उनको पूछ -पूछकर भोजन कराया। अकाल खत्म होने के उपरांत तीनों बुद्धिमान शिष्य वापस आश्रम लौटे । सद्गुरु जी ने तीनों बुद्धिमान शिष्यों की सेवा और भोजन उपलब्ध कराने के विषय में पूछा। तीनों ने अपनी -अपनी सेवाओं की जानकारी दी। सद्गुरु जी उस शिष्य से सबसे अधिक प्रभावित हुए जिसने अकाल पीड़ितों के समीप जाकर उनकी सेवा के साथ पूरी आत्मीयता के साथ भोजन कराया। मान्यवर, आप अगर अर्थपति हैं तो आपसे यह विनम्र निवेदन है कि जिस प्रकार भगवान जगन्नाथ भक्ति भाव को स्वीकार कर भक्तों से मिलने के लिए अपने श्रीमंदिर के रत्न वेदी का त्याग कर, अपनी विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा कर अपने अनन्य भक्तों से मित्रवत मिलते हैं। उनकी समस्त मनोकामनाओं को पूरा करते हैं तो आपभी उसी प्रकार दीन -दुखियों की सेवा क्यों नहीं करते हैं?
-अशोक पाण्डेय

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