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किस पर विश्वास करें: आंखों देखी पर या कानों सुनी बात पर?

-अशोक पाण्डेय
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बड़ा ही कठिन और बड़ा ही मुश्किल तब हो जाता है जब आंखों देखी घटना गलत हो जाती है और कानों सुनी खबर झूठी हो जाती है। सूफी संत कबीरदास जी कहते हैं कि एक बार वे चले यह खोज करने के लिए कि दुनिया में सबसे बुरा कौन है? जब उन्हें कोई बुरा नजर नहीं आया तो उनके अंतर्मन ने कहा कि कबीरदास स्वयं बुरे हैं, दुनिया बुरी नहीं है।यह रही आंखों देखी बात। एक ही बाइक पर भाई -बहन अगर जाते हैं तो दुनिया के लोग क्या उन्हें भाई -बहन के रूप में ही आंकता है? नहीं, दुनियावालों की सोच भाई -बहन को देखकर भी अपनी अपनी नज़र और सोच से आंकते हैं और इसे कोई बदल भी नहीं सकता है।अब रही बात कान से सुनी बात पर यकीन करने की,तो वह भी पूर्ण सत्य नहीं होता है। अगर कोई कहे कि आपका कान कौआ ले जा रहा है तो क्या उस बात पर यकीन करेंगे या अपने कान को देखेंगे? मान्यवर,आपकी सभी ज्ञानेंद्रियां और कर्मेंद्रियां आपके चंचल मन के वशीभूत हैं ऐसे में आप अगर अपनी आंखों का काम अपने कानों से करें तो व्यावहारिक रूप में आपको समझ में आ जाएगा कि स्वामी विवेकानंद जी आंखों देखी घटना से कहीं अधिक महत्त्व देते थे अपने कानों सुनी बात पर। फिर भी, आंख का काम आंख ही करती है और कान का काम कान ही करता है। इसीलिए सभी अपनी-अपनी सोच को बदलें फिर सभी को यह दुनिया विधाता की अनुपम भेंट नजर आएगी और जहां पर राममय भारतवर्ष नजर आएंगे।
-अशोक पाण्डेय

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