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पितृ श्राद्ध का शाश्त्रीय विवेचन।। पितृ पूजन देव पूजन से भी अधिक महत्वपूर्ण है।।

भुवनेश्वर: अशोक पाण्डेय

आज भौतिकवाद की चकाचौंध में लोग सनातन धर्म की अति महत्वपूर्ण विधि से वंचित होते जा रहें हैं।धर्मद्रोही कम्युनिस्टों और तथा कथित समाज सुधारक लोग डंडा लेकर श्राद्ध जैसे महान धर्म कार्य के पीछे पड़ गये हैं।
दुर्भाग्य से अन्य धर्मों की महान मूर्खता पूर्ण बातों की और उनकी नजर नहीं जाती मात्र सनातन धर्म ही सबके निशाने पर है।तो आइए श्राद्ध तर्पण पर कुछ दृष्टि पात किया जाय।पहली बात तो श्राद्ध कोई पोंगा पंथी नहीं यह वैदिक परंपरा है। साक्षात भगवान विष्णु गरुण जी से कहते हैं।कुर्वीत समये श्राद्धं कुले कश्चिन्न सीदति।आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।देव कार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते। देवताभ्यः पितृणां हि पूर्वमाप्यायनम् शुभम्।
अर्थात पितरों का समय से श्राद्ध करने से आयु पुत्र यश स्वर्ग कीर्ति पुष्टि बल श्री पशु सुख और धन की सतत वृद्धि होती है। यहां तक की देव कार्य से भी पितृ कार्य करना अधिक महत्वपूर्ण है। मनुष्य के द्वारा धरती पर किया जाने वाला श्राद्ध और तर्पण उसके पितर जिस जिस लोक में जिन जिन योनियों में रहते हैं उन्हें उन उन योनियों के भोग रूप में प्राप्त होता है। अगर पितृ देवयोनि में हैं तो अमृत बन कर गंधर्व योनि में भोग बन कर पशु योनि में तृण बन कर नाग योनि में वायु बन कर मानव योनि में अन्न राक्षस योनि में आमिष बनकर दानव को मांस प्रेत को रक्त पक्षी को फल बन कर तृप्त करता है।
तस्यान्नममृतं भूत्वा देवत्वे प्यनुयाति च।गांधर्वे भोग रूपेण पशुत्वे च तृणं भवेत्।फलं भवति पक्षित्वे राक्षसेषु तथामिषम्। गरुण पुराण,,अब अनेक बुद्धजीवियों के पेट में दर्द होगा कि आखिर वो भोग उन उन योनियों में जाते कैसे हैं कोई वरुण लोक कोई यक्ष लोक देव लोक या प्रेत योनि में है तो वह अपना भाग कैसे पाते हैं ।
एक महा मूढ़ ने तो यहां तक कह दिया कि क्या ब्राह्मण का पेट पोस्ट आफिस है जो वहां पहुंचा देता है।
तो सुनो ब्राह्मण का पेट वहां नहीं पहुंचता बल्कि ब्राह्मणों के द्वारा जो मंत्र बोले जाते हैं वो मंत्र उन पूर्वजों को चाहे वो देव पितर यक्ष राक्षस जिस भी रूप और लोक में हों ब्राह्मण के शरीर में बुला लेते हैं। और यदि वो नहीं उपस्थित हैं भगवान स्वयं पितृ स्वरूप हैं क्योंकि समस्त योनियां उन्हीं भगवान में अवस्थित हैं ।जैसे गर्भवती स्त्री जो भोजन करती है उससे वह तो तृप्त होती ही है उसके गर्भ में स्थित बालक भी तृप्त होता है। समस्त योनियां बीज रूप में भगवान में ही स्थित हैं।
आत्मानं गुर्विणी गर्भमपि प्रीणाति वै यथा।
दोहदेन तथा देवाः श्राद्धैः स्वांश्च पितृन नृणाम्।।इस प्रकार उन ब्राह्मणों में वो पितर शीघ्र गामी होकर प्रविष्ट हो जाते हैं। श्राद्ध पक्ष निकट जान कर सारे पितर आनंद से भर जाते हैं और अंतरिक्ष गामी वे पितृ उन ब्राह्मणों में बैठ कर भोजन से तृप्त हो कर अपने अपने लोकों में चले जाते हैं।
जैसे वायु यहां की सुगंध या दुर्गंध किसी को प्रदर्शित न करते हुए भी सुदूर तक पहुंचाती रहती है धरती पर दी हुई जलांजलि सूर्य को सुलभ होती रहती है वैसे ही मंत्र वायु बन कर समस्त श्राद्ध तर्पण तद् तद् जीवों को सुलभ कराता है।
निमंत्रितास्तु ए विप्राः श्राद्ध ्पूर्व दिने खग।
प्रविष्य पितरस्तेषु भुक्त्वा यान्ति स्वमालयम्।
गरुण पुराण।यदि श्राद्ध में मात्र एक ही ब्राह्मण आमंत्रित हैं तो उसके उदर में पिता वाम पार्ष्व में पितामह दक्षिण पार्श्व में प्रपितामह और पीठ में पिंड भक्षक पितर रहते हैं। गरुण पुराण में इस संबंध में एक बहुत ही सुन्दर प्रसंग है।
वनवास काल में भगवान रामभद्र पुष्कर तीर्थ में महाराज दशरथ का
श्राद्ध करने गये ।कंद मूल तथा अन्य फलों के गूदे पका कर ब्राह्मण भोजन कराना प्रारंभ हुआ।देवी सीता ज्योंही ब्राह्मण देवता के समक्ष भोजन परोसने गईं तो देखा कि ब्राह्मण के अग्रभाग में राजा दशरथ शशरीर बैठे हैं उन्हें देख कर सीता लज्जित हो कर भाग गईं और लता निकुंज में छिप गईं। भगवान राम भद्र ने देखा ब्राह्मण बैठे हैं किन्तु सीता कहीं दिख नहीं रही हैं अंततः राम ने स्वयं परोस कर भोजन कराया।
बाद में ब्राह्मण के विदा होने पर सीता आईं तो राम ने पूंछा आप कहां चली गईं थीं।सीता जी ने सारी बात बताया और कहा मेरे श्वसुर के समक्ष मैं वनवासिनी वेष में जाने से लज्जित हो गई फिर जिन्हें सदैव सुस्वादु भोजन सुलभ था उन्हें वनवासियों का भोजन त्रृण पात्र में देने की हिम्मत नहीं कर पाई मैं।गरुण पुराण धर्मखंड। भीष्म पितामह जब महाराज शांतनु को पिंडदान करने लगे तो शांतनु ने स्वयं प्रगट होकर हांथ फैला दिया तब भीष्म ने कहा पिता जी हांथ में पिंडदान का आदेश शास्त्र में नहीं है मैं केवल कुश पर ही पिंडदान करूंगा और इस शाश्त्र निष्ठा से शांतनु बड़े हर्षित हुए।तो मंत्र शक्ति के बल पर पितर ही नहीं साक्षात भगवान भी बुलाए जा सकते हैं। मंत्र परम लघु जासु वश बिधि हरि हर सुरसर्व।मानस,,देवाधीनं जगत्सर्वं मंत्राधीनं तु देवता।ते मंत्राः ब्राह्मणाधीनं तस्मात्ब्राह्मण देवता।कल अमावस्या है अमावस्या के दिन सारे पितर वायु रूप से अपने वंशज के द्वार पर मंडराते हैं भूख प्यास से व्याकुल हो कर खड़े रहते हैं। सूर्यास्त तक वो प्रतीक्षा करते हैं फिर निराश होकर भूखे प्यासे वापस चले जाते हैं। भगवान गरुण पुराण में स्वयं कहते हैं गरुण जो पितृ देवो ब्राह्मण और अग्नि की पूजा करते हैं वो प्राणियों की अंतरात्मा में प्रविष्ट मेरी ही पूजा करते हैं।जीव अपने कर्मों के अनुसार अगला शरीर निश्चित हो जानें पर मानव शरीर त्याग करता है और तत्काल दूसरे शरीर में प्रविष्ट हो जाता है जैसे जोंक पहले आगे वाले तृण को पकड़ कर तब पीछे वाले तृण को छोडती है।शरीर त्याग करते ही बल्कि इसी शरीर में ही उस जीव का अतिवाहिक वायवीय शरीर उत्पन्न हो जाता है जैसे भ्रूण माता के गर्भ में कुछ काल रह कर नया शरीर लेकर बाहर निकल आया है वैसे ही तत्काल अतिवाहिक वायवीय शरीर लेकर जीव अलग हो जाता है फिर कर्मानुसार जिस योनि में जाना है वह शरीर पाता है।उन समस्त शरीरों में पुत्र के द्वारा किया गया श्राद्ध ही उसे परम संतुष्टि प्रदान करता है।श्राद्ध ग्रहण करने के लिए यमराज भी उस जीव को प्रेषित करते हैं यदि संतान के द्वारा समुचित पिंडोदक श्राद्ध तर्पण सुलभ हो जाय तो वह जीव तृप्त हो कर मुक्ति भी पा लेता है। जिसका श्राद्ध नहीं हुआ वो नर्क में या भूत प्रेतादि योनियों में भटकते रहते हैं। इसलिए सारे तर्क़ कुतर्क त्याग कर श्रृद्धया जायते श्राद्धः। श्रृद्धा पूर्वक पूर्वजों का श्राद्ध करना चाहिए इन तथा कथित धर्म द्रोहियों के चक्कर में पड़ कर अपने पूर्वजों को नर्क गामी नहीं बनाना चाहिए।जै जानकी जीवन।मानस महारथी पं निर्मल कुमार शुक्ल वाशिम महाराष्ट्र। अशोक पाण्डेय, साभार अपने गुरु जी के विचार पाठकों तक पहुंचा रहे हैं

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