कीस डीम्ड विश्वविद्यालय,भुवनेश्वर,ओडिशा
जहां पर सच्चे मानव निर्मित होते हैं
प्रस्तुतिः अशोक पाण्डेय
ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर स्थित कीट-कीस दो डीम्ड विश्वविद्यालयों के संस्थापक तथा आदिवासी बाहुल्य कंधमाल लोकसभा के सांसद हैं महान् शिक्षाविद् प्रो.अच्युत सामंत।वे एक सरल,सौम्य,हंसमुंख,उदार तथा आत्मीय विचारोंवाले नेक इंसान हैं।महान् शिक्षाविद् प्रोफेसर अच्युत सामंत की ऐतिहासिक शैक्षिक पहलकीस डीम्ड विश्वविद्यालय,भुवनेश्वर,ओडिशाजहां पर सच्चे मानव निर्मित होते हैं।उनका यह मानना है कि हम मनुष्य तो भगवान को कभी देखे नहीं हैं परन्तु उसकी उपस्थिति का अहसास हमसभी अवश्य करते हैं।सच कहा जाय तो ईश्वर के अस्तित्व के विषय में कोई भी प्रश्न चिह्न कभी लगाया ही नहीं जा सकता है। हम स्वतंत्र जन्म अवश्य लिये हैं लेकिन कभी भी हमने अपनी स्वतंत्रता का अहसास नहीं किया है । एक मामूली-से दिखने वाले एक नेक इंसान को जैसे जगन्नाथ ने उसे हमारे पास किसी खास प्रयोजन से ही भेज दिया हो। हमारी मान्यताओं व विचारधाराओं के विपरीत हमारे बच्चों के लिए शिक्षा के माध्यम से एक बेहतर कल का सपना संजोये, बच्चों को सामाजिक दायित्व के कलंक से आज़ाद कर उनको समाज के लिए एक असाधारण उपलब्धि बनाने तथा एक ऐसे असंभव से कार्य को संभव करने का संकल्प उस इंसान ने ओडिशा की पावन धरती पर अविभाजित कटक जिले के कलराबंक गांव में एक देवदूत के रुप में जनवरी,1965 में लिया।वे सबसे पहले अपने जीवन की पहली गुरु अपनी स्वर्गींया मां नीलिमारानी सामंत के कठोर अनुशासन में पलकर आध्यात्मिक जीवन जीने की राह पर चलना सीखे।धीरे-धीरे अपने-पराये को जाने।घोर आर्थिक तंगी में पल-बढकर दुनिया को जाने। वह अनाथ बालक एक दिन अपने मन में यह खयाल लाया कि शिक्षा ही एक ऐसा ज़रिया है जो उसे सफलताओं की राह दिखा सकती है । भगवान जगन्नाथ ने उस देवदूत को एक सपना दिखाया और उसने अपने सपने को खुली आँखों से देखी। क्योंकि उनके पास उनके बाल्यकाल में खोने के लिए कुछ था भी तो नहीं और अगर था भी तो न के बराबर। आदिवासी समुदाय को प्रो अच्युत सामंत के बाल्यकाल के चेहरे पर वंचना, तिरस्कार, अज्ञानता, अंधविश्वास और भूख की परछाई साफ़ दिखाई देती थी।फिरभी वे1992-93 में बिना किसी उम्मीद की किरण के, उम्मीदों के विपरीत उस देवदूत पर भरोसा कर अपने बच्चों की जिंदगी को दाव पर लगा कर प्रो अच्युत सामंत को सौंप दिए।आज गर्व सहित बताते हुए अत्यंत ख़ुशी हो रही है कि विश्व के सबसे पहले आदिवासी आवासीय डीम्ड विश्वविद्यालय, कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज,कीस डीम्ड विश्वविद्यालय,भुवनेश्वर,ओडिशा के आज कुल लगभग 40,000 आदिवासी बच्चे एक अभिन्न अंग बन चुके हैं और इसका सारा श्रेय विदेह प्रोफेसर अच्युत सामंत को जाता है । यह एक सुखद संयोग है कि प्रो अच्युत सामंत ने लगातार 25 वर्षों के संघर्ष के प्रतिफल के रूप में सबसे पहले कीट डीम्ड विश्वविद्यालय,भुवनेश्वर अस्तित्व में आया जिसकी हाल ही में रजत जयंती हर्षोल्लास के साथ मनाई गई।आज भारत विश्व की एक महाशक्ति बनने के प्रवेश-द्वार पर खड़ा है जहां पर आज भी भारतीय समाज शिक्षा, रोजगार तथा जातीयता के आधार पर आय की वास्तविक असमानता से जूझ रहा है। आज से पच्चीस वर्ष पहले शिक्षा के माध्यम से वंचित समुदायों को मुख्य धारा में लाने के लिए कोई भी ठोस प्रयास नहीं किया गया था। सांवैधानिक प्रावधान थे, आरक्षण इत्यादि सबकुछ था, लेकिन वास्तव में कुछ भी ठोस रूप में नहीं दीख रहा था। आदिवासी लोग जीवनयापन के निम्नतम स्तर पर थे। वे अपने तथा अपने बच्चों के अस्तित्व के लिए लड रहे थे। वे पूरी तरह से विकास की मुख्यधारा से वंचित थे।जनसंख्या की दृष्टि से आदिवासी समाज का विस्तार कम था और जो कुछ भी था वह छिटपुट आबादी वाले थे। इसलिए उनमें स्कूलों सहित आधारभूत संरचनाओं का नितांत अभाव था।इसलिए ओडिशा के आदिवासियों के लिए, आज का दिन प्रो. अच्युत सामंत को धन्यवाद ज्ञापन करने का दिन है, क्योंकि यह उनका ही जुनून और जजबा था जिसके दम पर उन्होंने अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच 1992-93 में मात्र 125 आदिवासी बच्चों को सही दिशा दिखाते हुए, आज कीस की छाँव में लगभग 40,000 आदिवासी बच्चों को लाकर रख दिए हैं। उन आदिवासी बच्चों के लिए कीस तो उनके घर से दूर अपना घर कीस बन गया है। गौरतलब है कि यह असाधारण व आश्चर्यजनक कार्य संस्थापक प्रो.अच्युत सामंत ने बगैर किसी सरकारी, गैर-सरकारी एवं व्यावसायिक घरानों या उद्योगों की सहायता के बिना ही कर दिखाया है। यह उल्लेखनीय और प्रशंसनीय असाधारण उपलब्धि प्रो.अच्युत सामंत के ऊंचे मनोबल,अदम्य साहस,त्याग तथा समर्पण का नतीजा है। प्रत्येक परिस्थिति में प्रो सामंत के प्रभावी मुस्कान के पीछे, उन्होंने अपने बिखरे हुए बचपन के कड़वे सत्य को हमेशा छिपाया है कि कैसे जब वे मात्र 4 वर्ष के थे तो उनके पिताजी की एक रेल दुर्घटना में असामयिक मृत्यु हो गई थी और कैसे उनकी माँ ने उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए दूसरों के घरों में नौकरी की और कैसे अधिकतर खाली पेट पीड़ादायक यात्रा करके प्रो सामंत स्कूल जाते थे। उनकी पीड़ा कितनी कष्टदायी रही होगी यह सचमुच कल्पना से परे है। शायद उसी पीड़ा ने उन्हें आदिवासी समुदाय तथा आदिवासी बच्चों के बारे में सोचने के लिए मजबूर किया। जब किसी परिवार में दो बच्चों का पालन-पोषण तथा शिक्षा-दीक्षा देना असंभव-सा लगता है, तो कल्पना कीजिए कि किसप्रकार प्रो अच्युत सामंत की विधवा मां अपने कुल सात बच्चों की देखरेख आदि की व्यवस्था करती होगी। उनकी स्वर्गीया मां नीलिमारानी सामंत ने प्रो अच्युत सामंत को अदम्य साहस और शक्ति प्रदान की जिसके बदौलत वे आज आदिवासी समुदाय के जीवित मसीहा बनकर उनकी तथा उनके बच्चों के सच्चे भाग्यविधाता बने हुए हैं। आज कीस में लगभग 40,000 आदिवासी बच्चे केजी कक्षा से लेकर पीजी कक्षा तक समस्त आवासीय सुविधाओं का निःशुल्क उपभोग करते हुए स्वावलंबी बन रहे हैं।आदिवासी समुदाय ने तो अपने बच्चों को मात्र जन्म दिया है, लेकिन पिता की भूमिका सच्चे अर्थों में तो प्रो अच्युत सामंत ही निभा रहे हैं।आदिवासी बच्चे तो कभी वंचित,उपेक्षित तथा तिरस्कृत जीवन जीते थे वे आज प्रो सामंत के अभूतपूर्व शैक्षिक पहल कीस के चलते शैक्षिक वातावरण में पालते हैं तथा अपने व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करते हैं।आज प्रो अच्युत सामंत का कीस आधुनिक तीर्थस्थल बन चुका है,भारत का दूसरा शांतिनिकेतन बन चुका है।कीस को देखने के लिए आज राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, नोबेल पुरस्कार विजेता आदि आते हैं और कीस का अवलोकन कर प्रो अच्युत सामंत को साधुवाद देते हैं। आज कीस दुनिया के आकर्षण का केन्द्र बन चुका है जहां पर सच्चे देशभक्त जिम्मेदार तथा ईमानदार मानव गढे जाते हैं जिनमें लगभग 60 प्रतिशत आदिवासी बालिकाएं हैं।मेरा देश-विदेश के सभी शिक्षाविदों के सादर अनुरोध है कि वे कम से कम एकबार प्रो अच्युत सामंत जैसे पारदर्शी व्यक्तित्व के दर्शन करें तथा उनकी शैक्षिक पहल कीट-कीस का अवलोकन कर अपने मानव-जीवन को सार्थक अवश्य बनाएं।
-अशोक पाण्डेय