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चतुर्धा देवविग्रहों की बाहुडा यात्रा-28जून को और क्रमशः नीलाद्रि विजय पहली जुलाई को

-अशोक पाण्डेय
इस वर्ष 21जून से लेकर 27जून तक,कुल सात दिनों तक गुण्डीचा घर में चतुर्धा देवविग्रह विश्राम करने के उपरांत 28जून को बाहुडा यात्रा कर वे अपने श्रीमंदिर के सिंहद्वार पर वापस लौटेंगे। 28जून को गुण्डीचा मंदिर में चतुर्धा देवविग्रहों की भोर में मंगल आरती होगी।मयलम होगा। तडपलागी, रोसडा भोग होगा। अवकाश, सूर्यपूजा, द्वारपाल पूजा, शेषवेष आदि पूरे विधि-विधान से साथ संपन्न होगा। चतुर्धा देवविग्रहों को गोपालवल्लव भोग (खिचडी भोग) निवेदित होगा उसके उपरांत देवविग्रहों को एक-एक कर पहण्डी विजय कराकर उनके सुनिश्चित रथों पर आरुढ किया जाएगा।बाहुडायात्रा की सबसे अनोखी बात यह होती है कि उस दिन भगवान जगन्नाथ का दिव्य वेष लक्ष्मी-नारायण वेश होता है जिसके दर्शन की लालसा देश-विदेश के समस्त जगन्नाथ भक्तों की होती है। बाहुडा के दिन भगवान जगन्नाथ के प्रथम सेवक पुरी के गजपति महाराजा श्री श्री दिव्यसिंहदेवजी महाराजा अपने राजमहल श्रीनाहर से पालकी में आकर तीनों रथों पर चंदनमिश्रित पवित्र जल छिडककर छेरापंहरा करेंगे। तीनों रथों पर लगी नारियल की सीढियों को हटा दिया जाएगा। तीनों रथों को क्रमशःतालध्वज,देवदलन तथा नंदिघोष को उनके अपने-अपने सुनिश्चित घोडों के साथ जोड दिया जाएगा तथा जय जगन्नाथ तथा हरिबोल के जयघोष के साथ बाहुडा यात्रा आगामी 28जून को आरंभ होगी। श्रीमंदिर के सेवायतगण,स्थानीय पुलिस तथा जगन्नाथभक्त तीनों रथों को खींचकर श्रीमंदिर के सिंहद्वार के ठीक सामने लाकर खडा कर देंगे। रथ पर ही चतुर्धा देवविग्रहों का 29जून को सोना वेष होगा जिसमें श्रीमंदिर रत्नभण्डार से कुल बारह हजार तोले सोने के अनेक आभूषणों ,हीरे-जवाहरातों आदि से चतुर्धा देवविग्रहों को नख से लेकर शिख तक सुशोभित किया जाएगा ।30जून को चतुर्धा देवविग्रहों का अधरपडा होगा। और पहली जुलाई को नीलाद्रि विजय कराकर उन्हें पुनः उनके रत्नवेदी पर आरुढ कराया जाएगा।नीलाद्रि विजय की सबसे रोचक बात यह होती है कि तीन देवविग्रहों को (बलभद्रजी,सुभद्राजी और सुदर्शन जी को)देवी लक्ष्मीजी तो रत्नवेदी पर पुनः आरुढ होने की अनुमति दे देती हैं लेकिन जगन्नाथजी को रोक देती हैं क्योंकि जगन्नाथजी जब रथयात्रा पर गुण्डीचा मंदिर गये थे तो अपने बडे भाई बलभद्रजी को,लाडली बहन सुभद्राजी को तथा सुदर्शन जी को साथ लेकर गये थे और लक्ष्मी जी को श्रीमंदिर में अकेले ही छोड गये थे। और हेरापंचमी के दिन(24जून को) देवी लक्ष्मीजी जब जगन्नाथजी से मिलने के लिए गुण्डीचा मंदिर गईं तो जगन्नाथजी के सेवायतगण उनको जगन्नाथजी से मिलने से रोक दिए थे।वह भी एक बहुत बडा कारण होता है कि देवी लक्ष्मीजी और अधिक नाराज हो जातीं हैं। और जब जगन्नाथ जी उन्हें अपने हाथों से रसगुल्ला भोग खिलाकर उन्हें प्रसन्न कर देते हैं तो देवी लक्ष्मी जी उनको श्रीमंदिर के रत्नवेदी पर विराजमान होने की अनुमति प्रदान कर देतीं हैं।
नीलाद्रि विजय और रसगुल्लाभोग
नीलाद्रि विजय और रसगुल्लाभोग का सीधा संबंध जगन्नाथ भगवान के आषाढ शुक्ल त्रयोदशी के दिन बाहुडा यात्रा विजय कर श्रीमंदिर में पुनः रत्नसिंहासन पर आरुढ होने से है।जैसाकि सर्व विदित है कि प्रतिवर्ष आषाढ शुक्ल द्वितीया के दिन महाप्रभु जगन्नाथ अपनी विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा करते हैं और अपनी जन्मस्थली गुण्डीचा घर में कुल 7दिनों तक विश्राम करते हैं। उसके उपरांत बाहुडा विजय कर वे पुनः अपने श्रीमंदिर के सिंहद्वार के सामने आते हैं जहां पर उनका सोना वेष होता है। अधरपणा होता है अपनी नाराज पत्नी देवी लक्ष्मीजी से सिंहद्वार के सामने नोक-झोक होती है और जब वे अपनी पत्नी लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने के लिए अपने होथों से रसगुल्ला भोग निवेदित करते हैं तब जाकर लक्ष्मीजी उनको उनके रत्नवेदी पर वापस आरुढ होने की अनुमति प्रदान करतीं हैं। जगन्नाथ लोकपरम्परा में इसे ही नीलाद्रि विजय और रसगुल्लाभोग कहा जाता है। इस वर्ष 2023 का यह महोत्सव पहली जुलाई को है।गौरतलब है कि भगवान जगन्नाथ पुरी धाम में एक साधारण मानव की तरह ही सबकुछ मानवीय लीला करते हैं। वे बाहुडा विजय के उपरांत श्रीमंदिर के सिंहद्वार पर अपनी पत्नी देवी लक्ष्मी के साथ उनको मनाने हेतु नोक-झोक करते हैं,अपनी सफाई उन्हें देते हैं क्योंकि लक्ष्मीजी श्रीमंदिर में रथयात्रा से लेकर बाहुडायात्रा तक (20जून से लेकर 28जून तक) अकेली रहतीं हैं। वे क्रोधित अवस्था में रहतीं हैं क्योंकि उनको श्रीमंदिर में छोडकर जगन्नाथजी अपने भाई-बहन के साथ रथयात्रा कर गुण्डीचा मंदिर चले जाते हैं और हेरापंचमी के दिन लक्ष्मीजी जब जगन्नाथ जी मिलने के लिए गुण्डीचा मंदिर जाती हैं तो जगन्नाथ जी के सेवायत उनको जगन्नाथ जी से मिलने नहीं देते हैं। इसलिए नीलाद्रि विजय के दिन लक्ष्मी जी को प्रसन्नकर तथा उनकी सहर्ष अनुमति प्राप्तकर जगन्नाथजी अपने रत्नवेदी पर आरुढ होते हैं। भगवान जगन्नाथ के पास देवी लक्ष्मी को मनाने का एक ही तरीका अंत में काम आता है और वह है देवी लक्ष्मी को रसगुल्ला भोग निवेदितकर उनको प्रसन्न करने का।इसलिए वे उनको रसगुल्ला का भोग अपने हाथों से निवेदितकर उनको प्रसन्न करते हैं।इसीलिए प्रतिवर्ष ओडिशा में नीलाद्रि विजय दिवस को ओडिशा में रसगुल्ला दिवस के रुप में मनाया जाता है और जो इस वर्ष पहली जुलाई को है। श्रीमंदिर में कुल लगभग 205 प्रकार के सेवायत हैं जिनमें से सिर्फ भीतरछु महापात्र सेवायत ही रसगुल्ला भोग तैयार करते हैं। भीतरछु महापात्र सेवायत देवी लक्ष्मी के सेवायत हैं इसीलिए जब अधरपणा संपन्न होता है उसके उपरांत बलभद्रजी,सुभद्राजी तथा सुदर्शनजी को रत्नवेदी पर आरुढ कराने की अनुमति देवी लक्ष्मीजी प्रदान कर देती हैं लेकिन जब जगन्नाथ जी उनको अपने हाथों से रसगुल्ला भोग निवेदित करते हैं तब प्रसन्न होकर देवी लक्ष्मीजी उनको रत्नवेदी पर आरुढ होने की अनुमति प्रदान करती हैं।पुरी के बड ओडिया मठ,उत्तर पार्श्व मठ,नेवलदास मठ,राधावल्लव मठ,राधेश्याम मठ और कटकी मठ आदि में रसगुल्ला तैयार किया जाता है। अब यह देखना बडा दिलचस्प होगा कि जिसप्रकार इस वर्ष रथयात्रा में लगभग 10लाख जगन्नाथभक्त पुरी धाम पधारे थे क्या उतने ही भक्त बाहुडा यात्रा,सोना वेष,अधरपडा तथा नीलाद्रि विजय में भी पधारेंगे या उससे कहीं अधिक।
-अशोक पाण्डेय

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